खंड २

 

परम रहस्य

 


 

 क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ

 

     अपने अन्तिम छ: अध्यायों में गीता वह ज्ञान, जिसे भगवान् गुरु अर्जुन को अबतक प्रदान कर चुके हैं, एक और रूप में पुन: निरूपित करती है ताकि निम्न-तर प्रकृति से दिव्य प्रकृति की ओर आत्मा के आरोहण का मार्ग एक विशद और पूर्ण ज्ञान पर प्रतिष्ठित किया जा सके । तत्वत: तो यह वही ज्ञान है, पर अब इसके ब्योरों तथा संबंधों को सुस्पष्ट करके उन्हें उनका पूर्ण अर्थ प्रदान किया गया है, जिन विचारों एवं सत्यों का केवल चलते-चलाते संकेत कर दिया गया था या किसी अन्य प्रयोजन के प्रकाश में सामान्यत: ही प्रतिपादन किया गया था उनका पूरा-पूरा मूल्य अभी प्रकट किया गया है । इस प्रकार पहले छ: अध्यायों में सारी प्रधानता अक्षर आत्मा तथा प्रकृति-समावृत आत्मा के पारस्परिक भेद के लिए अपेक्षित ज्ञान को ही दी गयी थी । वहाँ परम आत्मा एवं परम-पुरुष-विषयक संकेत संक्षित और सर्वथा अस्पष्ट थे । परम पुरुष की परिकल्पना जगत् में कर्मों का समर्थन करने के लिए की गयी थी और उसे आत्मसत्ता का स्वामी प्रतिपादित किया गया था, परन्तु वैसे उसका स्वरूप बतलानेवाली कोई भी बात वहां नहीं कही गयी, शेष सत्ता के साथ उसके संबंधों का संकेत तक नहीं किया गया, उन्हें विस्तृत रूप से निरूपित करना तो दूर रहा । बाकी के अध्याय इस अप्रकाशित ज्ञान को विशेष प्रकाश में लाने तथा उसे उसके महत्-प्राधान्य के साथ प्रकट करने के लिये लिखे गये हैं । ईश्वर, परा और अपरा प्रकृति में भेद, सर्वोत्पादक तथा सर्वमय प्रकृतिस्थ परमेश्वर का साक्षात्कार, सर्वभूतों में अवस्थित एकमेव-इन्हींको अगले छ: अध्यायों ( ७-१२ ) में प्रधानता दी गयी है ताकि ज्ञान के साथ कर्म और भक्ति का मूल एकत्व संस्थापित किया जा सके । परंतु अब परम पुरुष, अक्षर आत्मा, जीव तथा कर्मशील त्रिगुणात्मिका प्रकृति के यथार्थ सबंधों को अधिक सुनिश्चित रूप में प्रकट करना आवश्यक है । अतएव अर्जुन से एक प्रश्न कराया जाता है जो अभीतक अस्पष्ट से रहे हुए इन विषयों पर अधिक विशद प्रकाश डालने का अवसर उपस्थित करे । वह प्रश्न करता है पुरुष और

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१. गीता, अध्याय १३

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प्रकृति के विषय में और यह जानना चाहता है कि प्रकृति का यह क्षेत्र्य क्या है, इसका ज्ञाता कौन है, ज्ञान क्या है और उस ज्ञान का ज्ञेय कौन है । इस प्रकरण में आत्मा और जगत् के उस समस्त ज्ञान का सार निहित है जिसकी आत्मा को अब भी आवश्यकता है यदि उसे अपने प्राकृत अज्ञान का उन्मूलन करना है तथा ज्ञान, जीवन और कर्म-कलाप के, एवं इन वस्तुओं में विद्यमान भगवान् के साथ अपने संबंधों के समुचित उपयोग को अपना आधार बनाकर जगत् के सनातन आत्मा के साथ अपनी सत्ता के एकत्व की ओर आरोहण करना है ।

 

    इन विषयों पर गीता के जो विचार हैं उनका सार, उसकी विचारधारा के चरम विकास को पहलेसे ध्यान में रखते हुए एक हदतक स्पष्ट किया जा चुका है; परंतु उसीकी शैली का अनुसरण करते हुए, हम उसकी वर्तमान विवेचना के दृष्टिबिन्दु से उसका पुन: निरूपण कर दें । कर्म को स्वीकार कर लेने पर, जगत् में भगवद्-इच्छा के यंत्र के रूप में आत्मज्ञान के साथ किये जानेवाले दिव्य कर्म को ब्राह्मी स्थितिके साथ पूर्णत: संगत और ईश्वरोन्मुख गति का अनिवार्य अंग मान लेने पर, उस कर्म को ' परम' के प्रति भक्तिपूर्ण यज्ञ के रूप में आंतरिक तौर पर ऊँचा उठा ले जाने पर, यह मार्ग आध्यात्मिक जीवन के महान् लक्ष्य अर्थात् निम्नतर प्रकृति से उच्चतर प्रकृति में तथा मर्त्य सत्ता से अमर सत्ता में उठने के महान् लक्ष्य पर क्रियात्मक रूप से कैसा प्रभाव डालता है ? समस्त जीवन, समस्त कर्म अंतरात्मा और प्रकृति के बीच चलनेवाला व्यापार है । उस व्यापार का मूल स्वरूप क्या है ? अपने आध्यात्मिक शिखर पर उसका स्वरूप क्या हो जाता है ? जो जीव अपने बाह्म तथा निम्नतर प्रेरक भावों से मुक्त होकर आंतरिक तौर पर परमात्मा की निज उच्चतम स्थिति में तथा उसकी विश्वगत शक्ति की गभीरतम कर्म-संबंधी प्रेरणा में अभिवर्धित हो जाता है उसे वह किस पूर्णता की ओर ले जाता है ? ये अंतर्भूत प्रश्न है और इनका उत्तर वेदांत, सांख्य एवं योग के जगद्-विषयक विचारों के विशाल समन्वय से, जो गीता की संपूर्ण चिन्तनधारा का आरंभ-बिंदु है, ग्रहण किये गये समाधान के आशय में दे दिया गया है । इनके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रश्न भी हैं जिन्हें गीता नहीं उठाती या जिनका वह उत्तर नहीं देती, क्योंकि वे उस युग के मानव-मन के सम्मुख अत्यावश्यक रूप में उपस्थित नहीं थे

 

   जो जीवात्मा यहाँ प्रकृति के अंदर देहधारी रूप में प्रकट होता है वह अपनी सत्ता का तीन रूपों में अनुभव करता है । सर्वप्रथम, वह अपनेको एक ऐसी आध्यात्मिक सत्ता अनुभव करता है जो आपातत: अज्ञान के द्वारा प्रकृति के बाह्य व्यापारों के अधीन है और प्रकृति की गतिशीलता के भीतर एक कार्यकारी, विचार-

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शील एवं क्षर व्यक्तित्व और प्राकृत जीव तथा अहंके रूप में प्रकटित है । इसके आगे जब वह इस समस्त कर्म और गति के पीछे हटता है तो वह पाता है कि उसका उच्चतर सत्स्वरूप वह सनातन तथा निर्व्यक्तिक आत्मा एवं अक्षर आत्मसत्ता है जो कर्म और गति को अपनी उपस्थिति के द्वारा धारण करने तथा एक अवि-चल, समत्व-युक्त साक्षी की भांति उसे देखने के सिवा उसमें और कोई भाग नहीं लेती । अंत में, जब वह इन दो परस्पर-विपरीत आत्माओं से परे देखता है तो उसे एक महत्तर अनिर्वचनीय सद्वस्तु की उपलब्धि होती है जिससे ये दोनों निःसृत होते हैं, उसे उन सनातन की उपलब्धि होती है जो आत्मा की आत्मा और समस्त प्रकृति एवं समस्त कर्म के प्रभु हैं, और केवल प्रभु ही नहीं हैं अपितु जगत् में अपनी शक्ति के इन व्यापारों के उद्गम, आध्यात्मिक आश्रय तथा रंगस्थल हैं, और केवल उद्गम तथा आध्यात्मिक आधार ही नहीं हैं बल्कि सभी शक्तियों, सभी पदार्थों तथा सभी सत्ताओं में विराजमान अंतर्वासी आत्मा हैं, केवल अंतर्वासी ही नहीं हैं अपितु अपनी सत्ता की प्रकृति नामक इस सनातनी शक्ति के विकासात्मक स्वरूपों के द्वारा स्वयमेव ये सब बल और शक्तियाँ, सब पदार्थ और सब सत्ताएँ भी हैं । स्वयं यह प्रकृति भी दो प्रकार की है, एक तो है विकारभूत और अपरा, दूसरी मूलभूत और परा । विश्व-यंतन्त्र के परिचालन से संबद्ध एक निम्न प्रकृति है जिसके संग के कारण प्रकृतिस्थ जीव 'त्रैगुण्यमयी माया' द्वारा जनित एक प्रकार के अज्ञान में निवास करता है, अपने-आपको देहबद्ध मन और प्राण से निर्मित अहं समझता है, प्रकृति के गुणों की शक्ति के अधीन कार्य करता है, अपने-आपको व्यक्तित्व के द्वारा बद्ध, पीड़ित तथा सीमित, जन्म के बंधन तथा कर्म के चक्र से निगड़ित, कामनाओं का पुतला, नश्वर, मरणधर्मा, अपनी प्रकृति का दास समझता है । सत्ता की इस अपरा शक्ति के ऊपर उसकी अपनी वास्तविक सत्ता की उच्च-तर, दिव्य और आध्यात्मिक प्रकृति है जिसमें यह जीव सदा के लिये 'शाश्वत' और भगवान् का चिन्मय अंश है, आनंदमय, मुक्त, अपनी संभूति के आवरण से उत्कृष्टतर, अमर, अविनाशी है, भगवान् की एक विभूति है । इस उच्चतर प्रकृति द्वारा, आध्यात्मिक विश्वात्मभाव पर आधारित दिव्य ज्ञान, प्रेम और कर्मों में से होते हुए सनातन की ओर ऊपर उठना पूर्ण आध्यात्मिक मोक्ष की कुंजी है । इतनी बात तो पहले ही स्पष्ट की जा चुकी है; और अब हमें अधिक विस्तार के साथ यह देखना है कि सत्ता के इस परिवर्तन में और कौन-सी विचार-धाराएँ अन्तर्भूत हैं और विशेषकर इन दो प्रकृतियों में क्या भेद है और हमारे कर्म तथा हमारी आत्मिक स्थिति पर इस मोक्ष का कैसा प्रभाव पड़ता है । इस प्रयोजन के लिए गीता उस उच्चतम ज्ञान के, जिसे उसने अबतक पृष्ठभूमि में रख

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छोड़ा था, कुछ ब्योरों का विस्तारपूर्वक वर्णन करती है । विशेषत:, वह सत्ता और भूत-भाव तथा आत्मा और प्रकृति के संबंध, तीन गुणों के कार्य, परम मोक्ष, भागवत आत्मा के प्रति मानव आत्मा के विशालतम एवं पूर्णतम आत्म-दान पर विचार करती है । इन अंतिम छ: अध्यायों में वह जो कुछ कहती है उस सबमें ऐसा बहुत-कुछ है जो अतीव महत्त्वपूर्ण है, परन्तु उस सबमें परम आकर्षक तो उसका वह अन्तिम विचार है जिसके साथ वह उपसंहार करती है; क्योंकि उसमें हम उसकी शिक्षा का प्रधान भाव, मानव आत्मा के प्रति उसका परम वचन, उसका परमोच्च संदेश पाते हैं ।

 

     सर्वप्रथम, समस्त सत्ता को प्रकृति के बीच आत्मा के निर्माण और कर्म का क्षेत्र समझना होगा । गीता ' क्षेत्र' की यह व्याख्या करती है कि यह शरीर ही आत्मा का क्षेत्र कहलाता है, और इस शरीर में कोई पुरुष है जो इस क्षेत्र को जानता है, जो क्षेत्रज्ञ अर्थात् प्रकृति का ज्ञाता है । किन्तु आगे आनेवाली परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल यह स्थूल शरीर ही क्षेत्न नहीं है, बल्कि वह सब भी क्षेत्र है जिसे हमारा शरीर आश्रय देता है, अर्थात् प्रकृति का व्यापार, मन-बुद्धि, हमारी सत्ता के बाह्यान्तर करणों के सब स्वाभाविक कार्य ।  यह व्यापक शरीर भी केवल व्यष्टिगत क्षेत्र है; परंतु इस ज्ञाता 'पुरुष' का एक अधिक अधिक सार्वभौम, विश्व-शरीर, विश्व-क्षेत्र भी है । क्योंकि, प्रत्येक देहधारी प्राणी में यही एक ज्ञाता विद्यमान है: प्रत्येक भूत में यह अपनी प्रकृति की शक्ति के इस एकमात्र बाह्य परिणाम को, जिसे इसने अपने निवास के लिये विरचित किया है, 'ईशाथास्यं... सर्वं यत्किञ्च', मुख्यतया और केंद्ररूप से प्रयोग में लाता है; यह अपनी गतिशील ऊर्जा के प्रत्येक पृथक्, व्यष्टिभूत संहत केंद्र को अपने विकासोन्मुख सामंजस्यों का प्रथम आधार और क्षेत्र बनाता है । प्रकृति के अन्दर यह जगत् को उस रूप में जानता है जिस रूप में यह इस एक सीमित शरीर में चेतना को प्रभावित करता तथा इसके अन्दर प्रतिबिम्बित होता है; इस समय तो जगत् हमारे लिए वैसा ही है जैसा यह हमारे पृथक् मन के अंदर दिखायी देता है,--पर अन्त में यह छोटी-सी दीखनेवाली देहबद्ध चेतना भी अपनेको इतना विस्तृत कर सकती है कि यह अपने अन्दर संपूर्ण विश्व को समा ले, 'आत्मनि विश्वदर्शनम् ।' परंतु, भौतिक रूप में, यह ब्रह्माण्ड में एक पिण्ड मात्र ही है, और ब्रह्माण्ड भी, यह विशाल विश्व भी एक देह एवं क्षेत्र है जिसमें क्षेत्रज्ञ आत्मा निवास करती है ।

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१. उपनिषद् कहती है कि प्रकृति के पांच प्रकार के शरीर या कोप हैं, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा दिव्य शरीर; इन्हें सम्पूर्ण क्षेत्र, ' क्षेत्रमू ', समझा जा सकता है ।

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    यह बात तब स्पष्ट हो जाती है जब गीता हमारी सत्ता की इस गोचर देह के स्वरूप, प्रकृति एवं उद्गम का तथा इसके विकारों एवं शक्तियों का निरूपण करने की ओर अग्रसर होती है । तब हम देखते हैं कि अपरा प्रकृति का सारा ही कार्य- व्यापार 'क्षेत्र शब्द से अभिप्रेत है । वह संपूर्ण व्यापार यहाँ हमारी अन्त:स्थित देहधारी आत्मा का कर्मक्षेत्न है, एक ऐसा क्षेत्र है जिसका वह बोध प्राप्त करती है । प्रकृति-निर्मित यह समस्त जगत् अपने मूल व्यापार में आध्यात्मिक दृष्टिबिन्दु से जैसा दिखायी देता है उसका विविध और विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें प्राचीन ऋषियों, वैदिक और औपनिषद ऋषियों के छंदों की ओर संकेत किया गया है जिनमें हम परमात्मा के द्वारा सृष्ट इन भुवनों का अंत:प्रेरित एवं अंत- ज्ञनिमय वर्णन पाते हैं, साथ ही इसके लिए हमें ब्रह्मसूत्रों की ओर भी निर्देश किया गया है जो हमारे सामने तार्किक एवं दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं । गीता हमारी सत्ता की निम्नतर प्रकृति का सांख्य विचारकों की परिभाषा में संक्षिप्त और व्यावहारिक निरूपण करके ही संतोष कर लेती है । सबसे पहले आती है निर्विशेष अव्यक्त ऊर्जा; तदनंतर, उसमें से पंच महाभूतों का बाह्य विकास; फिर, इंद्रियों, बुद्धि और अहंकार का आंतर विकास; अंत में, इंद्रियों के पांच विषय, या यों कहें कि जगत् के ऐंद्रिय बोध के पांच विभिन्न प्रकार, वे शक्तियाँ जो विश्व-ऊर्जा ने अपने मूल बाह्य उपादान के द्वारा निर्मित पञ्ज महाभूतों से उत्पन्न किये हुए नाना रूप पदार्थों के साथ व्यवहार करने के लिए विकसित की हैं,- वे ऐंद्रियक संबंध जिनके द्वारा बुद्धि और इंद्रियों से संपन्न अहं जगत् की रचनाओं पर अपनी क्रिया करता है : यह है क्षेत्र का स्वरूप । फिर, एक सामान्य चेतना है जो ऊर्जा को उसके कार्यों में पहले तो अनुप्राणित करती और तदनंतर आलों- कित भी करती है; उस चेतना की एक क्षमता है जिसके द्वारा ऊर्जा पदार्थों के संबंधों को एकत्र धारण करती है; इसी प्रकार, अपने विषयों के साथ हमारी चेतना के बाह्यांतर संबंधों की अविच्छिन्नता और दृढ़ता भी है । ये क्षेत्र की आवश्यक शक्तियां है; ये सब एक ही साथ मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्रकृति की सर्वसामान्य और सार्वभौम शक्तियाँ भी हैं । सुख और दु:, राग और द्वेष क्षेत्रके प्रधान विकार हैं । वैदांतिक दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि सुख और दुःख प्राणिक या संवेदनात्मक विकृत रूप हैं जो आत्मा के सहज आनन्द को निम्नतर शक्ति की क्रियाओं के संपर्क में आने पर इसके द्वारा प्राप्त होते हैं । और इसी दृष्टिबिंदु से हम कह सकते हैं कि राग और द्वेष तदनुरूप मानसिक विकृत रूप हैं; ये रूप निम्न शक्ति के द्वारा आत्मा के उस प्रतिक्रिया-कारी संकल्प को प्रदान किये जाते हैं जो इस, ऊजाँ के संपर्कों के प्रति अपनी प्रति-

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क्रिया निर्धारित करता है । ये सुख-दु:ख आदि द्वंद्व भावात्मक और अभावा-त्मक रूप हैं जिनमें निम्नतर प्रकृति का अहंभावापन्न जीव संसार का उपभोग करता है । अभावात्मक रूप-वेदना, घृणा, दु:, जुगुप्सा आदि-विकृत या, अधिक-से-अधिक, अज्ञान द्वारा विपर्यस्त प्रतिक्रियाएँ हैं : भावात्मक रूप-राग, सुख, हर्ष, आकर्षण-कुप्रेरित प्रतिक्रियाएँ हैं, अथवा अपने अच्छे-से-अच्छे रूपमें भी, ये अपर्याप्त हैं तथा सच्चे आध्यात्मिक अनुभव की प्रतिक्रियाओं से हीनकोटि की हैं ।

 

     ये सब चीजें मिलकर इस प्राकृत जगत् के साथ हमारे प्रथम व्यवहारों का मूलभूत स्वरूप हैं, पर स्पष्ट ही यह हमारी सत्ता का संपूर्ण विवरण नहीं है; यह हमारा वर्तमान स्वरूप है पर हमारी शक्यताओं की सीमा नहीं । इससे परे भी कोई वस्तु जानने को है, 'ज्ञेयम्', और जब क्षेत्र का ज्ञाता स्वयं इस क्षेत्र से पीछे हटकर इसके अंदर अवस्थित अपनी आत्मा को तथा इसके बाह्य रूपों के पीछे जो कुछ भी है उस सबको जानने के लिए अंतर्मुख होता है, अपने अंदर की ओर मुड़ता है तभी वास्तविक ज्ञान, 'ज्ञानम्', ज्ञाता का तथा क्षेत्र का सच्चा ज्ञान आरंभ होता है । वह अंतर्मुखता ही हमें अज्ञान से मुक्त करती है । कारण, जितना ही अधिक हम अंदर जाते हैं, उतना ही अधिक पदार्थों के महत्तर तथा पूर्णतर सत्यस्वरूप को जानते हैं और ईश्वर एवं जीव तथा जगत् एवं इसके व्यापारों दोनों के पूर्ण सत्य को हृदयंगम करते हैं । अतएव, भगवान् गुरु कहते हैं कि क्षेत्र और उसके ज्ञाता दोनों का एक साथ ज्ञान ही, 'क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो र्ज्ञानम्', संयुक्त और यहाँतक कि एकीकृत आत्मज्ञान तथा विश्व-ज्ञान ही वास्तविक ज्योति और एकमात्र प्रज्ञा है । क्योंकि, आत्मा और प्रकृति दोनों ही ब्रह्म हैं किंतु प्राकृत जगत् के वास्तविक सत्य को तो केवल वह मुक्त ज्ञानी ही जान सकता है जिसे आत्मा का सत्य भी ज्ञात हो । एकमेव ब्रह्म, आत्मा और प्रकृति के अंदर विद्यमान एकमेव सद्वस्तु ही ज्ञानमात्र का विषय है ।

 

    इसके बाद गीता हमें बताती है कि आध्यात्मिक ज्ञान क्या है, अथवा यों कहें कि वह हमें यह बताती है कि ज्ञान की शर्ते क्या हैं, तथा उस मनुष्य के लक्षण एवं चिह्न क्या हैं जिसकी आत्मा आंतरिक ज्ञान की ओर मुड़ी होती है । ये लक्षण ज्ञानी के माने हुए तथा परंपरागत गुण हैं, जैसे, बाह्य तथा सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति से उसके हृदय की प्रबल पराङमुखता, उसकी अंतर्मुख तथा ध्यानशील आत्मा, उसका स्थिर मन तथा शांत समत्व, परम अंतस्तम सत्यों तथा वास्तविक और सनातन वस्तुओं पर उसके विचार तथा संकल्प की स्थिर एकाग्रता । सबसे पहला लक्षण है एक विशेष प्रकार की नैतिक अवस्था, प्राकृत सत्ता का सात्त्विक

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नियंत्रण । सांसारिक मान और दंभ का नितांत अभाव उसके अंदर स्थिर रूप से प्रतिष्ठित होता है और इसके साथ ही होती है ऋजु आत्मा, क्षमाशील, चिर-सहिष्णु और दयालु हृदय, तन और मन की शुद्धता, प्रशांत स्थिरता और दृढ़ता, आत्म-संयम, निम्न प्रकृति पर प्रभुत्वपूर्ण शासन और गुरु के प्रति हार्दिक भक्ति, भले ही वे गुरु अंत:स्थ भगवान् हों या कोई मानव जो दिव्य ज्ञान के मूर्त विग्रह हों-गुरु की जो भक्ति की जाती है उसका यही तात्पर्य है । इसके अनंतर उसमें होता है पूर्ण अनासक्ति और समता का एक अधिक उदात्त और मुक्त भाव, इंद्रियों के विषयों के प्रति होनेवाले प्राकृत सत्ता के आकर्षण से दृढ़ विरक्ति, सामान्य मानव को उत्पीड़ित करनेवाली उस अनवरत अशान्त अहं-बुद्धि, अहंभावना तथा अहं-प्रेरणा-की मांगों से आमूल मुक्ति । परिवार और गृह के प्रति उसके अंदर कोई मोह-ममता और लगाव-फंसाव नहीं रहता । इन प्राणिक एवं पाशविक चेष्टाओं के स्थान पर होते हैं आसक्तिशून्य संकल्प तथा इंद्रियानुभव और बुद्धि, इस बात की तीव्र अनुभूति कि देहप्रधान मनुष्य का सामान्य जीवन अपने स्वरूप से ही दोषमय है, क्योंकि यह बिना किसी उद्देश्य के तथा दु:खद रूप से जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि के अधीन है; सभी इष्ट या अनिष्ट घटनाओं के प्रति सतत सम-चित्तता,-- क्योंकि आत्मा तो अंतर में विराजमान है तथा बाह्य घटनाओं के आघातों से अभेद्य है,--जन-समूहों और सभा-समितियों के निरर्थक कोलाहल से दूर एकांत-सेवन की ओर अभिमुख ध्यानपरायण मन । अंत में, जो वस्तुएँ वास्तव में महत्वपूर्ण हैं उनकी ओर एक तीव्र अंतर्मुख झुकाव होता है, और इसके साथ ही होता है जगत् के वास्तविक अभिप्राय तथा व्यापक मूलतत्त्वों का दार्शनिक अनुभव, अंतरीय आध्यात्मिक ज्ञान और ज्योति की शांत अविच्छिन्नता, अविचल भक्तियोग, ईश्वर-प्रेम और विश्वव्यापी एवं सनातन उपस्थिति के प्रति हृदय की प्रगाढ़ और अखण्ड आराधना ।

 

     जिस अनन्य ध्येय की ओर अध्यात्मज्ञान-युक्त मन को मुड़े रहना होगा वह हे सनातन देव जिनमें एकाग्र होने से हमारी तमसाच्छन्न तथा प्रकृति के कुहासे से परिवेष्टित अंतरात्मा अपनी अमर और परात्पर सहजात मूल चेतना को पुन: प्राप्त करके उसका उपभोग करती है । क्षणभंगुर में चित्त लगाने, दृश्य प्रपंच में परिसीमित रहने का अर्थ मर्त्यता को स्वीकार करना है; नाशवान् वस्तुओं में नित्य सत्य उनके अंदर का वह तत्त्व है जो अंतरीय तथा अपरिवर्तनीय है । जीव जब अपने-आपको प्रकृति के स्थूल रूपों से उत्पीड़ित होने देता है तो वह अपनेको खो बैठता है और अपने शरीरों के जन्म-मरण के चक्कर काटता रहता है । इन शरीरों में व्यक्तित्व के परिवर्तनों तथा उसके हितों का आवेगपूर्वक बेहद पीछा

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करता हुआ वह अंतर्मुख होने में समर्थ नहीं होता और अतएव अपनी निर्वैयक्तिक तथा जन्म-मरणरहित आत्मसत्ता की उपलब्धि नहीं कर सकता । ऐसा करने में समर्थ होने का अर्थ है अपने-आपको खोजकर अपनी उस वास्तविक सत्ता को पुन: प्राप्त कर लेना जो ये जन्म धारण करती है पर अपने रूपों के नाश के साथ नष्ट नहीं हो जाती । उस नित्य सत्ता का उपभोग करना आत्मा की सच्ची अमरता और परात्परता है जिसके निकट जन्म और जीवन केवल बाह्य परिस्थितियाँ मात्र हैं । वह नित्य सत्ता या नित्य पुरुष ब्रह्म है । ब्रह्म वह 'तत्' है जो विश्वातीत है और साथ ही विश्व-व्याप्त भी है : ब्रह्म वह मुक्त आत्मा है जो बाहर तो प्रकृति के साथ जीव की क्रीड़ा को आश्रय देती है और भीतर उनके अक्षय एकत्व को सुनिश्चित कर देती है; वह एक साथ ही क्षर और अक्षर दोनों है, वह 'सर्व'  है जो एकमेव है । अपनी सर्वोच्च विश्वातीत स्थिति में ब्रह्म एक अनादि या निर्विकार परात्पर नित्य सत्ता है जो सत्-असत् और नित्य-अनित्य के उन प्राकृत विरोधों से अत्यंत परे है जिनके बीच यह बाह्य जगत् विचरण करता है । परंतु एक बार इस नित्य सत्ता के सत्तत्व तथा प्रकाश में देखने पर यह विश्व भी उससे अन्य कुछ हो जाता है जैसा कि यह मन तथा इंन्द्रियों को सामान्यत: दिखायी देता है; क्योंकि तब हमें यह दिखायी देता है कि यह विश्व अब और मन, प्राण तथा जड़तत्त्व का आवर्त्त नहीं है, न ही यह शक्ति तथा सत्तत्व के निर्धारणों का संघात है, बल्कि यह केवल नित्य ब्रह्म है, उनसे भिन्न और कुछ नहीं । एक- मेव आत्मा है जो इस समस्त गति को अमित रूप में अपने-आपसे पूरित तथा परि-वेष्टित करती है-क्योंकि निःसंदेह वह गति भी वह स्वयं ही है--और जो सब सांत वस्तुओँ पर अपने अनंतता-रूपी परिधान के प्रभाव को प्रसारित करती है, एक देहरहित और सहस्रदेहधारी आत्मा जिसके शक्तिशाली हस्त और वेगवान् चरण हमारे चारों ओर विद्यमान हैं, जिसके सिर, नेत्र और मुख वे असंख्य चेहरे हैं जो हमें, जिधर भी हम मुड़ते हैं, दिखायी देते हैं, जिसका स्रोत सर्वत्र नित्यता की नीरवता तथा जगतों के संगीत का श्रवण कर रहा है,--वही आत्मा वह विराट् पुरुष है जिसके भुजपाश में हम निवास करते हैं ।

 

     पुरुष और प्रकृति के सभी संबंध ब्रह्म की नित्यता के ही अंदर होनेवाली घटनाएँ हैं; उन संबंधों की प्रकाशक और उपादान-भूत इंद्रियाँ और गुण इन्हीं परम पुरुष के साधन हैं, इनकी अपनी ही शक्ति सब वस्तुओं में जिन कार्य-व्यापारों को निरंतर गतिमान् करती रहती है वे सब इन साधनों के द्वारा ही हमारे सम्मुख प्रकट होते हैं । पर स्वयं वे इंद्रियों की सीमा से परे हैं, वे सब वस्तुओं को देखते हैं पर स्थूल आँख से नहीं, सब बातों को सुनते हैं पर स्थूल श्रोत से नहीं, सब

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वस्तुओं को जानते हैं, किन्तु परिसीमक मन से नहीं-मन तो केवल वस्तु का निरूपण करता है पर वास्तव में वह उसका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता । किन्हीं भी गुणों द्वारा निर्धारित न होते हुए, वे अपने सत्तत्व में सब गुणों को धारित तथा निर्धारित करते हैं और अपनी ही प्रकृति के इस गुणात्मक व्यापार का उपभोग करते हैं । वे जो कोई भी कार्य करते हैं उनमें से किसी में भी आसक्त एवं बद्ध नहीं हैं, किसी के भी अंदर लिप्त नहीं हैं; शांत-स्थिर होते हुए वे अपनी विश्व-व्यापिनी शक्ति के समस्त कर्म, प्रयास और आवेग को विशाल तथा अमर स्वातन्त्रय के साथ धारण करते हैं । इस संसार में जो कुछ भी है वह सब स्वयं वे ही बनते हैं; जो कुछ हमारे अंदर है वह वे ही हैं, और अपनेसे बाहर हम जो कुछ अनुभव करते हैं वह सब भी वे ही हैं । आंतर और बाह्य, दूरस्थ और समीपस्थ, चर और अचर--यह सब वे एक साथ ही हैं । सूक्ष्म वस्तु की सूक्ष्मता, जो हमारे ज्ञान से परे है, वह वे ही हैं, जिस प्रकार कि शक्ति और उपादान की घनता, जो हमारे मन के लिए ग्राह्य है, वह भी वही हैं । वे अविभाज्य और एकमेव हैं,  पर अपने-आपको रूपों तथा प्राणियों के अंदर विभक्त करते प्रतीत होते हैं और इन सब पृथक्-पृथक् सत्ताओं के रूप में दीख पड़ते हैं । सब वस्तुएँ फिर से उनके अंदर लौट सकती हैं, परमात्मा में अपनी सत्ता की अविभाज्य एकता की ओर प्रत्यावृत्त हो सकती हैं । सब कुछ नित्य उन्हीं से उत्पन्न होता है, उन्हीं की नित्यता में धारित रहता है, नित्य उन्हीं के एकत्व में लौट जाता है । वे सब ज्योतियों की ज्योति हैं तथा हमारे समस्त अज्ञानांधकार से परे प्रकाशमान हैं |  वे ज्ञान हैं और वही ज्ञेय हैं । जो आध्यात्मिक अतिमानस ज्ञान प्रदीप्त मन को परिप्लावित तथा रूपांतरित कर देता है वह ये परमात्मा ही हैं; वे उस मायाच्छन्न जीव के सम्मुख ज्योति के रूप में अपनेको अभिव्यक्त करते हैं जिसे उन्होंने प्रकृति की कर्मधारा के अंदर प्रकट किया है । यह सनातन ज्योति प्रत्येक जीव के हृदय में है, वही ज्योतिर्मय देव क्षेत्र के निगूढ़ ज्ञाता, क्षेत्रज्ञ हैं,  और वस्तुओं के अंतस्तल में विराजमान ईश्वर के रूप में वे इस लोक पर तथा व्यक्त भूतभाव और कार्य-व्यापार के इन सब राज्यों पर अधिष्ठातृत्व करते हैं । जब मनुष्य अपने अंदर इन सनातन और विश्वव्यापी परमेश्वर को देख लेता है, जब वह सब वस्तुओं में विद्यमान अंतरात्मा से सज्ञान हो जाता है तथा प्रकृति में आत्मा को खोज लेता है, जब वह संपूर्ण विश्व को इस नित्य आत्मसत्ता में उठती हुई एक लहर तथा जो कुछ भी है उस सबको एकमेव सत्ता अनुभव करता है, तब वह परमेश्वर की ज्योति को धारण कर लेता है और प्राकृतिक लोकों के बीच मुक्त होकर रहता है । दिव्य ज्ञान तथा इन भगवान् की ओर भक्तिसहित

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पूर्ण अभिमुखता महान् आध्यात्मिक मुक्ति का रहस्य है ।. स्वातन्त्र्य, प्रेम और आध्यात्मिक ज्ञान हमें मर्त्य प्रकृति से अमृत सत्ता में उठा ले जाते हैं ।

 

     पुरुष और प्रकृति सनातन ब्रह्म के दो पार्श्व मात्र हैं यह एक प्रतीयमान द्वैत है जो उनकी विश्वमय सत्ता के व्यापारों का आधार है । पुरुष अनादि और अनंत है, प्रकृति भी अनादि और अनंत है; परंतु हमारे सचेतन अनुभव में प्रकृति जिन निम्नतर रूपों को ग्रहण किए हुए प्रतिभासित होती है वे सब रूप और साथ ही प्रकृति के सब गुण इन दो सत्ताओं के पारस्परिक व्यापारों से उत्पन्न होते हैं । वे प्रकृति से उद्भूत होते हैं,--वे सब रूप जो यहाँ नश्वर और विकारी हैं उसीसे उद्भूत होते हैं, उसीके द्वारा वे कार्य और कारण, कर्म और कर्मफल, शक्ति और उसकी क्रिया की बाह्य शृंखला को अपने ऊपर ले लेते हैं । लगातार ही वे बदलते रहते हैं और उनके साथ ही पुरुष और प्रकृति भी बदलते मालूम होते हैं, पर अपने-आपमें ये दो शक्तियाँ सनातन तथा नित्य-अविकारी हैं । प्रकृति सृजन और कर्म करती है, पुरुष उसकी सृष्टि और कर्म का उपभोग करता है; किन्तु अपने कर्म के इस अवर रूप में वह इस उपभोग को सुख-दु:ख के क्षुद्र तमोमय रूपों में बदल डालती है । जीव, व्यष्टि-पुरुष उसके त्रिगुणात्मक व्यापारों से बलात् आकृष्ट हो जाता है और उसके गुणों का यह आकर्षण उसे निरंतर नाना प्रकार की योनियों में खींच लाता है जिनमें वह प्रकृतिगत जन्म के अनेकानेक परिवर्तनों और अवस्थान्तरों का तथा शुभ-अशुभ का उपभोग करता है । परंतु यह जीव का केवल बाह्य अनुभव है; क्षर प्रकृति के साथ एकाकार होने के फलस्वरूप जीव क्षरभावापन्न हो जाता है । तथापि इस शरीर में आसीन हैं उसके और हमारे देव, परमात्मा, परम पुरुष, प्रकृति के महेश्वर, जो उसके कार्य के साक्षी (उपद्रष्टा ) हैं, उसकी क्रियाओं के अनुमंता तथा उसके सकल कर्मों के भर्ता हैं, जो उसकी अनेकविध सृष्टि पर शासन करते हैं, अपनी ही सत्ता के तद्रचित रूपों की इस क्रीड़ा का अपने सार्वभौम आनंद के सहित उपभोग करते हैं । यह है वह आत्म-ज्ञान जिसके लिए हमें पहले अपने मन को अभ्यस्त बनाना है, तदनंतर ही हम सच्चे अर्थों में अपने-आपको उन सनातन का सनातन अंश जान सकते हैं । एक बार जब यह ज्ञान सुप्रतिष्ठित हो जाय, तब चाहे हमारी अंतरात्मा प्रकृति के साथ अपने संबंधों में बाहरी तौर पर कैसा भी व्यवहार क्यों न करे, वह चाहे कुछ भी क्यों न करती दिखायी दे या चाहे वह व्यक्तित्व, सक्रिय शक्ति तथा देहबद्ध अहंभाव के इस या उस रूप को धारण करती ही क्यों न प्रतीत हो, फिर भी वह अपने-आपमें स्वतंत्र होती है, पहले की तरह जन्मचक्र से नहीं बँधी रहती, क्योंकि वह आत्मा की निर्व्यक्तिकता में सत्ता मात्र की आंतरिक अज

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आत्मा के साथ एकमय हो जाती है । वह निर्व्यक्तिकता ही, जगत् में जो कुछ भी है उस सबके परम निरहंकार 'अहं' के साथ हमारा एकत्व है ।

 

    यह ज्ञान आंतरिक ध्यान से प्राप्त होता है जिसके द्वारा सनातन आत्मा हमारी अपनी आत्म-सत्ता में हमारे सम्मुख प्रकाशित हो जाती है । अथवा यह सांख्यों के योग, अर्थात् पुरुष और प्रकृति के पार्थक्य के द्वारा प्राप्त होता है । अथवा यह उस कर्मयोग के द्वारा प्राप्त होता है जिसमें अपने मन एवं हृदय तथा अपनी सारी क्रियाशील शक्तियों को उन ईश्वर की ओर खोलकर अपनी वैयक्तिक इच्छा-शक्ति को उन्हींमें विलीन कर दिया जाता है जो फिर प्रकृति के अंदर हमारे समस्त कर्मों का भार अपने ऊपर ले लेते हैं । आध्यात्मिक ज्ञान हमारी अन्त:स्थ आत्मा की प्रेरणा के द्वारा, इस या उस योग अर्थात् एकत्व-प्राप्ति के इस या उस मार्ग के प्रति आत्मा की पुकार के द्वारा जागरित हो सकता है । अथवा यह हमें दूसरों से सत्य का श्रवण करने तथा जिसे मन श्रद्धा और एकाग्रता के साथ सुनता है उसीके भाव में इसे ढाल देने से प्राप्त हो सकता है । परंतु चाहे जैसे भी प्राप्त हो, यह हमें मृत्यु से परे अमृतत्व की ओर ले जाता है । ज्ञान हमें आत्मा के प्रकृति की मर्त्यता के साथ होनेवाले क्षर व्यवहारों से बहुत ऊपर अवस्थित हमारी परमोच्च आत्मा को इस रूप में दिखला देता है कि वे प्रकृति के कर्मों के महेश्वर हैं जो सब पदार्थों और प्राणियों में एक और सम हैं, न देह के ग्रहण के समय जन्म लेते हैं और न ही इन सब देहों के विनाश के समय मृत्यु के वशीभूत होते हैं । यही है सच्चा देखना, अपने अंदर की उस सत्ता को देखना जो सनातन और अमृत है । जैसे-जैसे हम सब वस्तुओं में इस सम आत्मा को अधिकाधिक अनुभव करते हैं, वैसे-वैसे हम आत्मा की उसी समता में प्रवेश करते जाते हैं; जैसे-जैसे हम इन विश्वमय पुरुष में अधिकाधिक निवास करने लगते हैं, वैसे-वैसे हम स्वयं भी विश्वमय पुरुष बनते जाते हैं; जैसे-जैसे हम इन सनातन से उत्तरोत्तर सज्ञान होते जाते हैं, वैसे-वैसे हम अपनी सनातनता को धारण करते जाते हैं और सनातन ही बन जाते हैं । हम तब अपने मानसिक तथा भौतिक अज्ञान की सीमा और दुर्दशा के साथ तदाकार न रहकर आत्मा की नित्यता के साथ तदाकार हो जाते हैं । तब हम देखते हैं कि हमारे सब कर्म प्रकृति का ही विकास एवं व्यापार हैं और हमारी असली आत्मा कार्यवाहक कर्ता नहीं, बल्कि कार्य का स्वतंत्र साक्षी, महेश्वर तथा अलिप्त भोक्ता है । जगद्वयापारमय यह सब स्थूल प्रपंच एक ही सनातन के अंदर प्राकृत सत्ताओं का नानाविध भूतभाव है, सब कुछको विश्व-शक्ति ने उस पुरुष की सत्ता के अंदर बद्धमूल अपने 'विचार'  ( Idea ) के बीजों से ही विस्तारित, अभिव्यक्त तथा अनावृत किया है;

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परंतु आत्मा हमारी इस देह में उसके व्यापारों का अंगीकार और उपभोग करते हुए भी उसकी मर्त्यता से प्रभावित नहीं होती, क्योंकि वह जन्म-मरण से परे अनाद्यनन्त है, वह उन व्यक्तित्वों से सीमाबद्ध नहीं होती जिन्हें वह प्रकृति के अंदर नाना रूप से ग्रहण करती है, क्योंकि वह इन सब व्यक्तित्वों की एक ही परम आत्मा है, त्निगुण के विकारों से परिवर्तित नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं गुणों से निर्धारित नहीं होती, कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करती, 'कर्तारम् अपि अकर्तारम्', क्योंकि वह प्रकृति के कर्म को धारण तो करती है पर उसके फलों से आध्यात्मिक तौर पर पूर्णतया मुक्त रहती है, वह समस्त कर्मों का मूल तो है, पर अपनी प्रकृति की क्रीड़ा से किसी प्रकार भी परिवर्तित या प्रभावित नहीं होती । जिस प्रकार सर्वव्यापी आकाश जिन अनेक रूपों को ग्रहण करता है उनसे प्रभावित या परिवर्तित नहीं होता, बल्कि सदा एकरस, शुद्ध, सूक्ष्म मूलतत्त्व ही बना रहता है, उसी प्रकार यह आत्मा सब संभव कार्यों को कर चुकने तथा सभी संभवनीय बस्तुएँ बन चुकने पर भी-उन सबमें से होकर भी-वही शुद्ध, निर्विकार, सूक्ष्म, अनंत मूलतत्त्व बनी रहती है । यह आत्मा की परा स्थिति है, 'परा गति:' है, यह ईश्वरीय भाव और प्रकृति है, 'मद्धाव' है; जो कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है वह सनातन के उसी अमृतत्व में उठ जाता है ।

 

     ये ब्रह्म, अपने प्राकृत भूतभाव के क्षेत्र के ये सनातन और आध्यात्मिक ज्ञाता, यह प्रकृति, उनकी शाश्वत शक्ति जो अपनेको क्षेत्र के रूप में परिणत करती है, मर्त्य प्रकृति में आत्मा की यह अमरता--ये सब एक साथ मिलकर हमारी सत्ता के संपूर्ण सत्य हैं । जब हम अपनी अंतरस्थ आत्मा की ओर मुड़ते हैं तो वह प्रकृति के संपूर्ण क्षेत्र को रश्मियों की पूर्ण प्रभा से समन्वित अपने निज सत्य से प्रकाशमान कर देती है । उस ज्ञान-सूर्य के प्रकाश में हमारे अंदर ज्ञाननेत्र खुल जाता है और तब हम और इस अज्ञान में नहीं, बल्कि उस सत्य में निवास करने लगते हैं । तब हम देखते हैं कि हमारा अपनी वर्तमान मानसिक और भौतिक प्रकृति की सीमा में बंधे रहना एक अंधकारमय भ्रांति थी, तब हम अपरा प्रकृति के नियम, अर्थात् मन और देह के नियम से मुक्त हो जाते हैं, तब हम आत्मा की पराप्रकृति को प्राप्त कर लेते हैं । वह अति भव्य और उच्च परिवर्तन ही, मर्त्य प्रकृति को उतार फेंकना तथा अमृत सत्ता को अपना लेना ही चरम, दिव्य और अनंत संभूति है ।

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